सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

जया एकादशी कथा

जया एकादशी कथा जय एकादशी कथा धर्मराज युधिष्ठिर बोले की हे - भगवान आपने माघ माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी का अत्यंत सुंदर वर्णन किया अब कृपया कर माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा का वर्णन कीजिए इस एकादशी का नाम,विधि और देवता क्या और कौन सा है सो कहिये । श्री कृष्ण भगवान बोले हे राजन माघ माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम जया है इस एकादशी के व्रत से मनुष्य ब्रह्म हत्या के पाप से छूट जाते हैं और अंत में उनको स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस व्रत से मनुष्य कुयोनि, भूत प्रेत पिशाच आदि की योनि से छूट जाता है। अतः इस एकादशी के व्रत को विधिपूर्वक करना चाहिए। हे राजन मैं एक पौराणिक कथा कहता हूं एक समय इंद्र नागलोक में अपनी इच्छा अनुसार अप्सराओं के साथ रमण कर रहा था गंधर्व गान कर रहे थे। वहां गंधर्वो में प्रसिद्ध पुष्पवंत उसकी लड़की तथा चित्रसेन की स्त्री मलिन ये सब थे। उस जगह मलिन का लड़का पुष्पवान और उसका लड़का माल्यवान भी था। पुत्ष्पवती नामक एक गंधर्व स्त्री मान्यवर को देखकर मोहित हो गई और कामबाण से चलायमान होने लगी उसने रूप सौंदर्य हाव भाव आदि द्वारा माल्यवान को बस में कर लिया पुष्पवती के सौंदर्य को देखकर माल्यवान भी मोहित हो गया अतः यह दोनों कामदेव के बस में हो गए परंतु फिर भी इंद्र के बुलाने पर नाच गाने के लिए आना पड़ा और अप्सराओं के साथ गाना गाने लगे । परंतु कामदेव के प्रभाव से इनका मन नहीं लगा और अशुद्ध गाना गाने लगे। इनकी भाव भंगिमाओ को देखकर इंद्र ने इनके प्रेम को समझ लिया और इसमें अपना अपमान समझकर इंद्र ने इन्हें श्राप दे दिया की तुम स्त्री पुरुष के रूप में मृत्यु लोक में जाकर पिशाच का रूप धारण करो और अपने कर्मों का फल पाओ। इंद्र का श्राप सुनकर यह अत्यंत दुखी हुए और हिमाचल पर्वत पर पिशाच बन कर दुःख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे रात दिन में इन्हें एक क्षण भी निंद्रा नहीं आती थी इस स्थान पर अत्यंत सर्दी थी। एक दिन पिशाच अपनी स्त्री से कहा ना मालूम हमने पिछले जन्म में ऐसे कौन से पाप किए हैं जिनसे हमें कितनी दुखदाई यह पिशाच योनि प्राप्त हुई है। दैव योग से एक दिन माघ माह के शुक्ल पक्ष की जया नाम की एकादशी तिथि आई उस दिन दोनों ने कुछ भी भोजन ना किया और ना कोई पाप कर्म ही किया इस दिन केवल फल फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया और महान दुख के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए वह रात्रि इन दोनों के एक दूसरे से चिपट कर बड़ी कठिनता के साथ काटी। सर्दी के कारण उनको रात्रि में निंद्रा भी नहीं आई दूसरे दिन प्रातः काल होते ही भगवान के प्रभाव से इनकी पिशाच से छूट गई और अत्यंत सुंदर अप्सरा और गंधर्व की देह धारण करके तथा सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत होकर नाग लोक तो प्रस्थान किया आकाश में देवगण तथा गंधर्व इनकी स्तुति तथा पुथुवर्षा करने लगे नाग लोक में जाकर इन दोनों ने देवराज इंद्र को प्रणाम किया इंद्र को भी इन्हें अपने प्रथम रूप में देखकर महान आश्चर्य हुआ और इनसे पूछने लगा कि तुमने अपनी पिशाच देह से किस प्रकार छुटकारा पाया सो तब बतलाओ इस प्रकार माल्यावन बोले हे देवेंद्र भगवान विष्णु के प्रभाव तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमारी पिशाच देह छुटी है। इंद्र बोले हे माल्यवान एकादशी व्रत करने से तथा विष्णु के प्रभाव से तुम लोग पिशाच देह को छोड़कर पवित्र हो गए हो और हम लोगों के भी वन्दनीय योग्य हो गए हो।कयोंकि शिवभक हम लोगों के वन्दना करने योग्य है आप धन्य है धन्य है। अब तुम उस युवती के साथ जाकर बिहार करो। युधिस्टर इस जया एकादशी का व्रत करने से समस्त कुयोनी छूट जाती है। जिस मनुष्य ने इस एकादशी का व्रत किया है उसने मानो सब जप तप यज्ञ आदि किए हैं जो मनुष्य भक्ति पूर्वक एकादशी का व्रत करते हैं वे अवश्य ही सहस्त्र वर्ष स्वर्ग में निवास करते हैं। विष्णु भगवान की जय।

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

आज का पंचांग

ऊं श्रीं श्याम देवाय नमः।। ॐ नमो भगवते वासुदेवय।। http://www.jaankaarikaal.com/panchang.php विक्रम सवंत,2077,प्रमादी, उत्तरायण, माघ मास, शुक्ल पक्ष,नक्षत्र रोहिणी नवमी, रविवार, करण कौलव,योग विश्कुम्भ दिनांक-21-02-2021 आपकों व आपके परिवार को मंगलमय हो ।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

मातृभाषा

 मातृभाषा क्या है


जन्म से हम जो भाषा का प्रयोग करते है वही हमारी मातृभाषा है। सभी संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते है। इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते है।  


सभी राज्यों के लोगों का मातृभाषा दिवस पर अभिनन्दन - हर वो कोई जो उत्सव मना रहा है। उत्सव के लिए कोई भी कारण उत्तम है। भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग संस्कृति है, एक अलग पहचान है। उनका अपना एक विशिष्ट भोजन, संगीत और लोकगीत हैं। इस विशिष्टता को बनाये रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है।


मातृभाषा में शिक्षण की आवश्यकता

आज बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती करना भूल चुके हैं। मैं उन्हें प्रोत्साहित करता हूँ कि वे अपनी मातृभाषा सीखें, प्रयोग करें और इस धरोहर को संभाल के रखें।


आप जितनी अधिक भाषाएँ जानेगें, सीखेंगे वह आपके लिए ही उत्तम होगा। आप जिस किसी भी प्रांत, राज्य से हैं कम से कम आपको वहां की बोली तो अवश्य आनी चाहिए। आपको वहां की बोली सीखने का कोई भी मौका नहीं गवाना चाहिए। कम से कम वहां की गिनती, बाल कविताएँ और लोकगीत। पूरी दुनिया को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार (Twinkle Twinkle Little Star) या बा - बा ब्लैक शीप ( Ba-ba black sheep) गुनगुनाने की कतई आवश्यकता नहीं है। आपकी लोकभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत, बाल कविताएँ, दोहे, छंद चौपाइयाँ हैं जिन्हें हम प्रायः भूलते जा रहे हैं।


भारत के हर प्रांत में बेहद सुन्दर दोहावली उपलब्ध है और यही बात विश्व भर के लिए भी सत्य है। उदाहरण के लिए एक जर्मन बच्चा अपनी मातृभाषा जर्मन (German) में ही गणित सीखता है न कि अंग्रेजी में क्योंकि जर्मन उसकी मातृभाषा है। इसी प्रकार एक इटली में रहने वाला बच्चा भी गिनती इटैलियन (Italian) भाषा में और स्पेन का बालक स्पैनिश (spanish) भाषा में सीखता है।


मातृभाषिक शिक्षण का महत्त्व

किन्तु भारतीय बच्चे अपनी लोकभाषा जिसमें हमें कम से कम गिनती तो आनी चाहिए उसे भूलते जा रहे हैं। इससे हमारे मस्तिष्क पर भी गलत असर पड़ता है और हमारी लोकभाषा में गणित करने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है।


जब हम छोटे बच्चे थे तब पहली से चौथी कक्षा का गणित लोकभाषा में पढ़ाया जाता था। अब धीरे धीरे यह प्रथा लुप्त होती जा रही है। लोकभाषा, मातृभाषा में बच्चों का बात ना करना अब एक फैशन हो गया है। इससे गाँव और शहर के बच्चों में दूरियाँ बढ़ती हैं। गाँव, देहात के बच्चे जो सबकुछ अपनी लोकभाषा में सीखते हैं अपने को हीन और शहर के बच्चे जो सबकुछ अंग्रेजी में सीखते हैं स्वयं को श्रेष्ठ, बेहतर समझने लगते हैं। इस दृष्टिकोण में बदलाव आना चाहिए। हमारे बच्चों को अपनी मातृभाषा और उसी में ही दार्शनिक भावों से ओतप्रोत लोकगीत का आदर करते हुए सीखने चाहिए। नहीं तो हम अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण खो देंगे।


बांग्ला भाषा में बेहद सुन्दर लोकगीत हैं जो वहां के लोकगायक बाउल ( baul - इकतारे के समान दिखने वाला) नामक वाद्ययंत्र पर गाते बजाते हैं। उनके गायन को सुनकर अद्धभुत अनुभव होता है - गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इन्ही से ही प्रेरणा ली थी। इसी प्रकार आँध्रप्रदेश में ‘ जनपद साहित्य ‘ और वहां के लोकगीत, छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य, केरला के सुन्दर संगीत, भोजन, संस्कृति सब कुछ अप्रतिम है।


अपनी संस्कृति, सभ्यता

१९७० में कॉलेज के दौरान मैं केरला गया था। तब वहां पर सिर्फ केरल का ही भोजन ‘लाल रंग के चावल’ खाने को मिलते थे। उन्हें सफ़ेद चावल, पुलाव इत्यादि के बारे में कुछ नहीं पता था। वे लोग वही परम्परागत उबले हुए लाल चावल ही खाते थे जो बहुत सेहतमंद होता है। लेकिन आज अगर आप वहां जाएंगे तो बर्गर, पिज़्ज़ा, सैंडविच इत्यादि सब कुछ पाएंगे और इसी प्रकार धीरे धीरे वहां का पंचकर्म और आयुर्वेद लुप्त होने लगा। लेकिन कुछ प्रबुद्ध, विद्वान् लोगों ने उस प्रथा को जीवित रखा और उसे धीरे धीरे वापिस ले आये हैं।


अतः हर प्रांत की कुछ न कुछ अपनी अनूठी विशेषता होती है - वहां का भोजन, संस्कृति, बोली, संगीत, नृत्य इत्यादि जिसका मान करना चाहिए और उस धरोहर को संभाल के रखना चाहिए। यही तो असली में विविधता है जिसका हमें आदर करना चाहिए और प्रोत्साहित करना चाहिए। तभी तो हम वास्तव में ‘विविधता में एकता' की कसौटी पर खरे उतरेंगे जिसका सम्पूर्ण जगत में उदहारण दिया जा सकेगा।


यही बात मैं विश्व के आदिवासी संस्कृति के बारे में भी कहूंगा। कनाडा (Canada) की अपनी एक विशिष्ट आदिवासी प्रजाति है। उनकी अपनी संस्कृति है और इस प्रजाति को वहां की सर्वप्रथम नागरिकता का सम्मान प्राप्त है। इसी प्रकार से अमरीका में भी, मूल अमरीका के निवासी (Indigenous Americans) या अमेरिकन इन्डियन्स प्रजाति के लोग, जो अब अपनी भाषा तो भूल चुके हैं, किन्तु अब भी उन्होनें अपनी संस्कृति, सभ्यता को जीवित रखा है। इसी प्रकार से दक्षिण अमरीकी महाद्वीप में भी ऐसा ही है।


मेरे विचार से यह (भारतीय भाषाएँ एवं संस्कृति) एक विश्व की अनुपम धरोहर है। हमें अपनी सभ्यता के, निष्ठा के बारे में सचेत रहना चाहिए और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए।

- गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के ज्ञान वार्ता से कुछ अंश

सतीश शर्मा जी द्वारा संकलित ।

धन प्राप्ति के उपाय

 सोमवार की शाम को काले तिल और कच्चे चावल मिलाकर किसी ब्राम्हण को दान कर दें। ऐसा करने से पितृ दोष का प्रभाव कम हो जाएगा। कई बार धन प्राप्ति में पितृ दोष भी रुकावट डालता है। इस उपाय से समस्या हल हो जाएगी।


सोमवार शाम को देसी घी में आटे को भूनकर पंजीरी बना लें। अब इसका भोग भोलेनाथ को लगाएं। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होंगे और आपकी धन संबंधित परेशानी दूर होगी।

अगर धन नहीं टिकता है उन्हें सोमवार को बेलपत्र पर ओम लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाना चाहिए। आप इसे 11, 21, 51 और 108 की संख्या में चढ़ा सकते हैं।

सोमवार की शाम को चांदी के नाग—नागिन का जोड़ा दान करें या इसे शिवलिंग पर चढ़ाए। इससे भी धन की किल्लत दूर होगी।

सफेद चंदन शिवलिंग पर लगाने से भी भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं। इससे मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

अनावश्यक रूप से धन खर्च होता रहता है तो सोमवार को मछलियों को आटे की गोलियां खिलाएं। आप चाहे तो घर पर भी सुनहरी मछलियां रख सकते हैं। इससे ग्रह दोष दूर होंगे।

सोमवार को पांच कन्याओं या ब्राम्हणों को खीर खिलाएं एवं दक्षिणा दें। ऐसा करने से भी घर में मां लक्ष्मी का आगमन होगा।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें लिखे-9312002527
jankarikal@gmail.com 
jaankaarikaal.com

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

मंत्र का जीवन पर प्रभाव

(((( गुरुमंत्र का प्रभाव ))))

स्कन्द पुराण' के ब्रह्मोत्तर खण्ड में कथा आती है...

काशी नरेश की कन्या कलावती के साथ मथुरा के दाशार्ह नामक राजा का विवाह हुआ।
विवाह के बाद राजा ने अपनी पत्नी को अपने पलंग पर बुलाया परंतु पत्नी ने इन्कार कर दिया। तब राजा ने बल-प्रयोग की धमकी दी।
पत्नी ने कहाः स्त्री के साथ संसार-व्यवहार करना हो तो बल-प्रयोग नहीं, स्नेह-प्रयोग करना चाहिए।
नाथ ! मैं आपकी पत्नी हूँ, फिर भी आप मेरे साथ बल-प्रयोग करके संसार-व्यवहार न करें।
आखिर वह राजा था। पत्नी की बात सुनी-अनसुनी करके नजदीक गया।
ज्यों ही उसने पत्नी का स्पर्श किया त्यों ही उसके शरीर में विद्युत जैसा करंट लगा। उसका स्पर्श करते ही राजा का अंग-अंग जलने लगा।
वह दूर हटा और बोलाः क्या बात है ? तुम इतनी सुन्दर और कोमल हो फिर भी तुम्हारे शरीर के स्पर्श से मुझे जलन होने लगी ?
पत्नीः नाथ ! मैंने बाल्यकाल में दुर्वासा ऋषि से शिवमंत्र लिया था। वह जपने से मेरी सात्त्विक ऊर्जा का विकास हुआ है।
जैसे, अँधेरी रात और दोपहर एक साथ नहीं रहते वैसे ही आपने शराब पीने वाली वेश्याओं के साथ और कुलटाओं के साथ जो संसार-भोग भोगे हैं...
उससे आपके पाप के कण आपके शरीर में, मन में, बुद्धि में अधिक है और मैंने जो जप किया है उसके कारण मेरे शरीर में ओज, तेज, आध्यात्मिक कण अधिक हैं।
इसलिए मैं आपके नजदीक नहीं आती थी बल्कि आपसे थोड़ी दूर रहकर आपसे प्रार्थना करती थी।
आप बुद्धिमान हैं बलवान हैं, यशस्वी हैं धर्म की बात भी आपने सुन रखी है। फिर भी आपने शराब पीनेवाली वेश्याओं के साथ और कुलटाओं के साथ भोग भोगे हैं।
राजाः तुम्हें इस बात का पता कैसे चल गया ?
रानीः नाथ ! हृदय शुद्ध होता है तो यह ख्याल आ जाता है।
राजा प्रभावित हुआ और रानी से बोलाः तुम मुझे भी भगवान शिव का वह मंत्र दे दो।
रानीः आप मेरे पति हैं। मैं आपकी गुरु नहीं बन सकती। हम दोनों गर्गाचार्य महाराज के पास चलते हैं।
दोनों गर्गाचार्यजी के पास गये और उनसे प्रार्थना की।
उन्होंने स्नानादि से पवित्र हो, यमुना तट पर अपने शिवस्वरूप के ध्यान में बैठकर राजा-रानी को निगाह से पावन किया।

फिर शिवमंत्र देकर अपनी शांभवी दीक्षा से राजा पर शक्तिपात किया।

कथा कहती है कि देखते-ही-देखते कोटि-कोटि कौए राजा के शरीर से निकल-निकलकर पलायन कर गये।

काले कौए अर्थात् तुच्छ परमाणु। काले कर्मों के तुच्छ परमाणु करोड़ों की संख्या में सूक्ष्म दृष्टि के द्रष्टाओं द्वारा देखे गये हैं।

सच्चे संतों के चरणों में बैठकर दीक्षा लेने वाले सभी साधकों को इस प्रकार के लाभ होते ही हैं।

मन, बुद्धि में पड़े हुए तुच्छ कुसंस्कार भी मिटते हैं। आत्म-परमात्माप्राप्ति की योग्यता भी निखरती है।

व्यक्तिगत जीवन में सुख-शांति, सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है तथा मन-बुद्धि में सुहावने संस्कार भी पड़ते हैं।
और भी अनगिनत लाभ होते हैं जो निगुरे, मनमुख लोगों की कल्पना में भी नहीं आ सकते।
मंत्रदीक्षा के प्रभाव से हमारे पाँचों शरीरों के कुसंस्कार व काले कर्मों के परमाणु क्षीण होते जाते हैं।
थोड़ी-ही देर में राजा निर्भार हो गया और भीतर के सुख से भर गया।
शुभ-अशुभ, हानिकारक व सहायक जीवाणु हमारे शरीर में ही रहते हैं।
पानी का गिलास होंठ पर रखकर वापस लायें तो उस पर लाखों जीवाणु पाये जाते हैं यह वैज्ञानिक अभी बोलते हैं, परंतु शास्त्रों ने तो लाखों वर्ष पहले ही कह दिया।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ

सरसंघचालक परंपरा


संघ एक विकासशील संगठन है। केवल शाखा या विविध कार्य ही नहीं, तो अनेक परम्पराएं भी स्वयं विकसित होती चलती हैं। यहां हर काम के लिए संविधान नहीं देखना पड़ता। बाहर से देखने वाले को शायद यह अजीब लगता हो; पर जो लोग संघ और उसकी कार्यप्रणाली को लम्बे समय से देख रहे हैं, वे इसकी वास्तविकता से परिचित हैं। उनके लिए यह सामान्य बात है।

यदि हम सरसंघचालक परम्परा को देखें, तो परम पूजनीय डाक्टर हेडगेवार को उनके सहयोगियों ने बिना उनकी जानकारी के सरसंघचालक बनाया। डॉ॰ जी ने इस अवसर पर कहा कि आपके आदेश का पालन करते हुए मैं यह जिम्मेदारी ले रहा हूं; पर जैसे ही मुझसे योग्य कोई व्यक्ति आपको मिले, आप उसे यह दायित्व दे देना। मैं एक सामान्य स्वयंसेवक की तरह उनके साथ काम करूंगा। जब डाक्टर जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, तो उन्होंने अपने सहयोगियों से परामर्श कर अपने ऑपरेशन से पूर्व सबके सामने ही श्री गुरुजी को बता दिया कि मेरे बाद आपको संघ का काम संभालना है। इस प्रकार संघ को द्वितीय सरसंघचालक की प्राप्ति हुई।

जब श्री गुरुजी को लगा कि अब यह शरीर लम्बे समय तक साथ नहीं दे पाएगा, तो उन्होंने भी अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं से परामर्श किया और एक पत्र द्वारा श्री बालासाहब देवरस को नवीन सरसंघचालक घोषित किया। वह पत्र उनके देहांत के बाद खोला गया था। बालासाहब ने श्री गुरुजी के देहांत के बाद यह जिम्मेदारी संभाली, इससे लोगों के मन में यह धारणा बनी कि यह जिम्मेदारी आजीवन होती है तथा पूर्व सरसंघचालक अपनी इच्छानुसार किसी को भी यह दायित्व दे सकते हैं।

परंतु श्री बालासाहब देवरस ने अपने पूर्व के दोनों सरसंघचालकों द्वारा अपनायी गयी विधि से हटकर नये सरसंघचालक की नियुक्ति की। उन्होंने स्वास्थ्य बहुत खराब होने पर अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सब प्रतिनिधियों के सम्मुख श्री रज्जू भैया को नया सरसंघचालक घोषित किया। मा० रज्जू भैया और फिर श्री सुदर्शन जी ने भी इसी विधि का पालन किया। इस प्रकार संघ में एक नयी परम्परा विकसित हुई।

इस घटनाक्रम को एक और दृष्टिकोण से देखें। जब बालासाहब ने दायित्व से मुक्ति ली, तब उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था। वे पहिया कुर्सी पर ही चल पाते थे। बोलने में भी उनको बहुत कठिनाई होती थी। उनके लिखित संदेश ही सब कार्यक्रमों में सुनाए जाते थे। अपनी दैनिक क्रियाएं भी वे किसी के सहयोग से ही कर पाते थे। इस कारण उनकी दायित्व मुक्ति को सबने सहजता से लिया।

दूसरी ओर रज्जू भैया ने जब कार्यभार छोड़ा, तो वे पूर्ण स्वस्थ तो नहीं; पर प्रवास करने योग्य थे। सार्वजनिक रूप से मंच पर बोलने में उन्हें भी कठिनाई होती थी; पर व्यक्तिगत वार्ता वे सहजता से करते थे। दायित्व से मुक्त होकर भी उन्होंने अनेक प्रान्तों का प्रवास किया। अर्थात यदि वे चाहते, तो दो-तीन वर्ष और इस जिम्मेदारी को निभा सकते थे; पर उन्होंने उपयुक्त व्यक्ति पाकर यह कार्यभार छोड़ दिया।

जहां तक पांचवे सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी की बात है, दायित्व मुक्ति तक वे काफी स्वस्थ थे। प्रवास के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से बोलने में उन्हें कुछ कठिनाई नहीं थी। फिर भी जब उन्हें लगा कि श्री मोहन भागवत के रूप में एक सुयोग्य एवं ऊर्जावान कार्यकर्ता सामने है, तो उन्होंने भी जिम्मेदारी छोड़ दी। स्पष्ट है कि उन्होंने वही किया, जो आद्य सरसंघचालक डॉ॰ हेडगेवार ने पदभार स्वीकार करते समय कहा था कि जब भी मुझसे अधिक योग्य कार्यकर्ता आपको मिले, आप उसे सरसंघचालक बना दें। मैं उनके निर्देश के अनुसार काम करूंगा। यह है एक परम्परा में विश्वास और दूसरी परम्परा का विकास। पुरानी नींव पर नये निर्माण का इससे अधिक सुंदर उदाहरण और क्या होगा ?

एक अन्य दृष्टि से विचार करें। पूज्य डॉ॰ जी के देहांत के बाद उनका दाह संस्कार रेशीम बाग में हुआ। आज वहां उनकी समाधि बनी है, जिसे ‘स्मृति मंदिर’ कहते हैं। उसका बाह्य रूप मंदिर जैसा है; पर वहां पूजा, पाठ, घंटा, भोग, आरती, प्रसाद आदि कुछ नहीं है। वहां डाक्टर जी भव्य प्रतिमा है, जो तीन ओर से खुली है। स्पष्ट है संघ में व्यक्ति का महत्व होते हुए भी व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है।

द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने अपने देहांत से पूर्व तीन पत्र लिखे थे। दूसरे पत्र में ही उन्होंने कह दिया था कि डाक्टर जी की तरह उनका कोई स्मारक न बनाएं। कार्यकर्ताओं ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्मृति मंदिर के सामने उनका दाह संस्कार किया। आज वहां यज्ञ ज्वालाओं के रूप में एक छोटा ‘स्मृति चिन्ह’ बना है। उस पर संत तुकाराम की वे पंक्तियां उत्कीर्ण हैं, जिनको उद्धृत करते हुए श्री गुरुजी ने अपने तीसरे पत्र में सब स्वयंसेवकों से क्षमा मांगी थी।

श्री बालासाहब देवरस इससे एक कदम और आगे गये। उन्होने कार्यकर्ताओं से पहले ही कह दिया था कि रेशीम बाग को हमें सरसंघचालकों का श्मशान स्थल नहीं बनाना है। इसलिए मेरा अंतिम संस्कार सामान्य श्मशान घाट पर किया जाए। बालासाहब का देहांत पुणे में हुआ; पर उन्होंने नागपुर में अपने जीवन का काफी समय बिताया था। उनके अनेक मित्र व सम्बन्धी वहां थे, जो उनके अंतिम दर्शन कर श्रद्धांजलि देना चाहते थे। अत: उनके शरीर को नागपुर लाकर गंगाबाई घाट पर अग्नि को समर्पित किया गया।

बालासाहब के ही समान रज्जू भैया का देहांत भी पुणे में हुआ। उन्होंने एक बार यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी मृत देह को नागपुर या दिल्ली लाने की आवश्यकता नहीं है। जहां उनका देहांत हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। इसी कारण उनका दाह संस्कार पुणे में हुआ। सुदर्शन जी का देहांत रायपुर में हुआ। उनके पार्थिव शरीर को नागपुर लाया गया।संघ के कुछ कार्यकर्ता उनके पार्थिव शरीर को एक रथ से अंतिम संस्कार के लिए रेशमीबाग से गंगा बाई घाट ले गए।

स्पष्ट है कि सभी सरसंघचालकों ने स्वयं को विशिष्ट से सामान्य व्यक्तित्व की ओर क्रमश: अग्रसर किया। संघ और समाज एकरूप हो, यह बात संघ में प्राय: कही जाती है। सरसंघचालकों ने अपने व्यवहार से इसे सिद्ध कर दिखाया।

किसी समय संघ पर मराठा और ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगाया जाता था; पर उत्तर प्रदेश के प्रो॰ राजेन्द्र सिंह और कर्नाटकवासी सुदर्शन जी के सरसंघचालक बनने के बाद इन लोगों के मुंह सिल गये। २००९ में मोहन भागवत के सरसंघचालक और सुरेश जोशी के सरकार्यवाह बनने के बाद ये वितंडावादी फिर चिल्लाये; पर अब किसी ने उन्हें घास नहीं डाली। सब समझ चुके हैं कि ऐसे आरोप बकवास के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।

जो लोग संघ को लकीर का फकीर या पुरानी परम्पराओं से चिपटा रहने वाला कूपमंडूक संगठन कहते हैं, उन्हें सरसंघचालक परम्परा के विकास का अध्ययन करना चाहिए। अभी संघ ने अपनी शताब्दी नहीं मनाई है; पर इसके बाद भी इस परम्परा में अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह संघ की जीवंतता का प्रतीक है और इसी में संघ की ऊर्जा का रहस्य छिपा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालकों की सूची:

1. डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार उपाख्य डॉक्टर साहब
(1925-1940)
2. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी (1940-1973)
3. मधुकर दत्तात्रय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस
(1973-1993)
4. प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया
(1993-2000)
5. कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी
(2000-2009)
6. डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत
(2009..........)
सतीश शर्मा जी द्वारा संकलित ।

सोमवार, 16 सितंबर 2019

सुदूर उड़ीसा के जगन्नाथपुरी धाम में आज भी ठाकुर जी को सर्वप्रथम मारवाड़ की करमा बाई का भोग लगता है :-

मारवाड़ प्रांत का एक जिला है नागौर। नागौर जिले में एक छोटा सा शहर है ..... मकराणा

मकराणा के नाम से देश के ही नहीं विदेश के लोग भी परिचित है .... मकराणा की खानों से निकला सफेद मार्बल पत्थर (संगेमरमर) पूरे विश्व में अपनी एक अलग व विशिष्ट पहचान व ख्याति रखता है ....

मकराणा में मूलतः कुम्हारी और डूंगरी रेंज का मार्बल निकलता है .... यहां कब किसके खेत/प्लॉट/मकान के नीचे मार्बल की खान निकल जाये और सोयी किस्मत जग जाये मालूम नहीं चलता .... यूँ तो राजस्थान में कमोबेश हर जिले तहसील में एक से एक बेमिसाल पत्थर निकलते हैं पर जो बात मकराणा के मार्बल में है वो किसी में नहीं ....

यूएन ने मकराणा के मार्बल को विश्व की ऐतिहासिक धरोहर घोषित किया हुआ है .... ये क्वालिटी है यहां के मार्बल की ....

लेकिन क्या मकराणा की पहचान सिर्फ वहां का मार्बल है ?? ....

जी नहीं ....

मारवाड़ का एक सुप्रसिद्ध भजन है ....

थाळी भरकर ल्याई रै खीचड़ो ऊपर घी री बाटकी ....
जिमों म्हारा श्याम धणी जिमावै करमा बेटी जाट की ....
माता-पिता म्हारा तीर्थ गया नै जाणै कद बै आवैला ....
जिमों म्हारा श्याम धणी थानै जिमावै करमा बेटी जाट की ....

मकराणा तहसील में एक गांव है कालवा .... कालूराम जी डूडी (जाट) के नाम पे इस गांव का नामकरण हुआ है कालवा ....

कालवा में एक जीवणराम जी डूडी (जाट) हुए थे भगवान कृष्ण के भक्त .... जीवणराम जी की काफी मन्नतों के बाद भगवान के आशीर्वाद से उनकी पत्नी रत्नी देवी की कोख से वर्ष 1615 AD में एक पुत्री का जन्म हुआ नाम रखा .... करमा ....

करमा का लालन-पालन बाल्यकाल से ही धार्मिक परिवेश में हुआ .... माता पिता दोनों भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे घर में ठाकुर जी की मूर्ति थी जिसमें रोज़ भोग लगता भजन-कीर्तन होता था....

करमा जब 13 वर्ष की हुई तब उसके माता-पिता कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए समीप ही पुष्कर जी गए .... करमा को साथ इसलिए नहीं ले गए कि घर की देखभाल, गाय भैंस को दुहना निरना कौन करेगा .... रोज़ प्रातः ठाकुर जी के भोग लगाने की ज़िम्मेदारी भी करमा को दी गयी ....

अगले दिन प्रातः नन्हीं करमा बाईसा ने ठाकुर जी को भोग लगाने हेतु खीचड़ा बनाया (बाजरे से बना मारवाड़ का एक शानदार व्यंजन) .... और उसमें खूब सारा गुड़ व घी डाल के ठाकुर जी के आगे भोग हेतु रखा ....

करमा;- ल्यो ठाकुर जी आप भोग लगाओ तब तक म्हें घर रो काम करूँ ....

करमा घर का काम करने लगी व बीच बीच में आ के चेक करने लगी कि ठाकुर जी ने भोग लगाया या नहीं .... लेकिन खीचड़ा जस का तस पड़ा रहा दोपहर हो गयी ....

करमा को लगा खीचड़े में कोई कमी रह गयी होगी वो बार बार खीचड़े में घी व गुड़ डालने लगी ....

दोपहर को करमा बाईसा ने व्याकुलता से कहा ठाकुर जी भोग लगा ल्यो नहीं तो म्हे भी आज भूखी रहूं लां ....

शाम हो गयी ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया इधर नन्हीं करमा भूख से व्याकुल होने लगी और बार बार ठाकुर जी की मनुहार करने लगी भोग लगाने को ....

नन्हीं करमा की अरदास सुन के ठाकुर जी की मूर्ति से साक्षात भगवान श्री-कृष्ण प्रकट हुए और बोले .... करमा तूँ म्हारे परदो तो करयो ही नहीं म्हें भोग क्यां लगातो ?? ....

करमा;- ओह्ह इत्ती सी बात तो थे (आप) मन्ने तड़के ही बोल देता भगवान ....

करमा अपनी लुंकड़ी (ओढ़नी) की ओट (परदा) करती है और हाथ से पंखा झिलाती है .... करमा की लुंकड़ी की ओट में ठाकुर जी खीचड़ा खा के अंतर्ध्यान हो जाते हैं ....

करमा का ये नित्यक्रम बन गया ....

रोज़ सुबह करमा खीचड़ा बना के ठाकुर जी को बुलाती .... ठाकुर जी प्रकट होते व करमा की ओढ़नी की ओट में बैठ के खीचड़ा जीम के अंतर्ध्यान हो जाते ....

माता-पिता जब पुष्कर जी से तीर्थ कर के वापस आते हैं तो देखते हैं गुड़ का भरा मटका खाली होने के कगार पे है .... पूछताछ में करमा कहती है .... म्हें नहीं खायो गुड़ ओ गुड़ तो म्हारा ठाकुर जी खायो ....

माता-पिता सोचते हैं करमा ही ने गुड़ खाया है अब झूठ बोल रही है ....

अगले दिन सुबह करमा फिर खीचड़ा बना के ठाकुर जी का आह्वान करती है तो ठाकुर जी प्रकट हो के खीचड़े का भोग लगाते हैं ....

माता-पिता यह दृश्य देखते ही आवाक रह जाते हैं ....

देखते ही देखते करमा की ख्याति सम्पूर्ण मारवाड़ व राजस्थान में फैल गयी ....

जगन्नाथपुरी के पुजारियों को जब मालूम चला कि मारवाड़ के नागौर में मकराणा के कालवा गांव में रोज़ ठाकुर जी पधार के करमा के हाथ से खीचड़ा जीमते हैं तो वो करमा को पूरी बुला लेते हैं ....

करमा अब जगन्नाथपुरी में खीचड़ा बना के ठाकुर जी के भोग लगाने लगी .... ठाकुर जी पधारते व करमा की लुंकड़ी की ओट में खीचड़ा जीम के अंतर्ध्यान हो जाते ....

बाद करमा बाईसा का जगन्नाथपुरी में ही देहावसान हो गया ....

(1) जगन्नाथपुरी में ठाकुर जी को नित्य 6 भोग लगते हैं .... इसमें ठाकुर जी को तड़के प्रथम भोग करमा रसोई में बना खीचड़ा आज भी रोज़ लगता है ....

(2) जगन्नाथपुरी में ठाकुर जी के मंदिर में कुल 7 मूर्तियां लगी है .... 5 मूर्तियां ठाकुर जी के परिवार की है .... 1 मूर्ति सुदर्शन चक्र की है .... 1 मूर्ति करमा बाईसा की है ....

(3) जगन्नाथपुरी रथयात्रा में रथ में ठाकुर जी की मूर्ति के समीप करमा बाईसा की मूर्ति विद्यमान रहती है .... बिना करमा बाईसा की मूर्ति रथ में रखे रथ अपनी जगह से हिलता भी नहीं है ....

मारवाड़ या यूं कहें राजस्थान के कोने कोने में ऐसी अनेक विभूतियां है जिनके बारे में आमजन अनभिज्ञ है। हमें उन्हें पढ़ना होगा। हमें उन्हें जानना होगा ।
सतीश शर्मा जी द्वारा संकलित ।